पानी पर कंहा कोई दास्तान बयां होती है …
वह तॊ पानी हे... बेज़ुबां बहती रेहती है …
कोई जो समझे तो उलझसा जाता है...
जिस्म नहीं रुह तक भिगो लेता है...
इक समंदर को तलास्ति शायद
बारिश को भी ये तरस्ती बेहद ...
मुझे तो ये चाहत कि तरहा लगती है...
जो तुमसे शुरू और तुमपे खत्म होती है....
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